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प्रस्तावना

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Authors

Dr. Ramesh Chander
Assistant professor

Synopsis

भूमिका
बाल्यावस्था वास्तव में मानव जीवन का वह स्वर्णिम समय है जिसमें उसका सर्वांगीण विकास होता है। फ्रायड यद्यपि यह मानते हैं कि बालक का विकास पाँच वर्ष की आयु तक हो जाता है। लेकिन बाल्यावस्था में विकास की यह सम्पूर्णता गति प्राप्त करती है और एक ओर परिपक्व व्यक्ति के निर्माण की ओर अग्रसर होती है।
शैशवावस्था के बाद बाल्यावस्था का आरम्भ होता है। यह अवस्था, बालक के व्यक्तित्व के निर्माण की होती है।  बालक  में इस अवस्था में विभिन्न आदतों, व्यवहार, रुचि एवं इच्छाओं के प्रतिरूपों का निर्माण होता है। ब्लेयर, जोन्स एवं सिम्पसन के अनुसाररू “शैक्षिक दृष्टिकोण से जीवन चक्र में बाल्यावस्था से अधिक कोई महत्त्वपूर्ण अवस्था नहीं है। जो शिक्षक इस अवस्था के बालकों को शिक्षा देते हैं, उन्हें बालकों का, उनकी आधारभूत आवश्यकताओं का, उनकी समस्याओं एवं उनकी परिस्थितियों की पूर्ण जानकारी होनी चाहिए जो उनके व्यवहार को रूपान्तरित और परिवर्तित करती है।
कोल व रूस ने बाल्यावस्था को जीवन का ‘अनोखा काल’ बताते हुए लिखा हैरू “वास्तव में माता पिता के लिए बाल-विकास की इस अवस्था को समझना कठिन है।”
कुप्पूस्वामी के अनुसार इस अवस्था में बालक में अनेक अनोखे परिवर्तन होते हैं, उदाहरणार्थ, 6 वर्ष की आयु में अनोखे परिवर्तन होते हैं, उदाहरणार्थ, 6 वर्ष की आयु में बालक का स्वभाव बहुत उग्र होता है और वह लगभग सब बातों का उत्तर ‘न’ या ‘नहीं’ में देता है। 7 वर्ष की आयु में वह उदासीन होता है और अकेला रहना पसन्द करता है। 8 वर्ष की आयु में उसमें अन्य बालकों से सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करने की भावना बहुत प्रबल होती हैं। 9 से 12 वर्ष तक की आयु में विद्यालय में उसके लिए कोई आकर्षण नहीं रह जाता है। वह कोई नियमित कार्य न करके, कोई महान् और रोमांचकारी कार्य करना चाहता है।

Published

10 May 2022

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Details about the available publication format: Paperback

Paperback

ISBN-13 (15)

978-93-94411-16-6

How to Cite

Chander, R. . (Ed.). (2022). प्रस्तावना. In (Ed.), बाल्यावस्था और विकास (pp. 1-38). Shodh Sagar International Publications. https://books.shodhsagar.org/index.php/books/catalog/book/30/chapter/164