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वृद्धि और विकास की अवधारणा

Book Title:


Authors

Dr. Ramesh Chander
Assistant professor

Synopsis

वृद्धि का अर्थ
वृद्धि का अर्थ आमतौर पर मानव के शरीर के विभिन्न अंगों के विकास तथा उन अंगों की कार्य करने की क्षमता का विकास माना जाता है। व्यक्ति के इन शारीरिक अंगों के विकास के परिणामस्वरूप उसका व्यवहार किसी न किसी रूप से प्रभावित होता है। इस प्रभाव के परिणामस्वरूप ही उस व्यक्ति के अंगों में परिवर्तन होता है। इस तरह वृद्धि से अभिप्राय है शरीर, आकार और भार में वृद्धि। इस प्रकार की वृद्धि में व्यक्ति की माँसपेशियों की वृद्धि भी शामिल है।
वृद्धि की परिभाषा
हरबर्ट सोरेन्सन ने तो शारीरिक वृद्धि को ‘बड़ा और भारी होना बताया है, जो वृद्धि और परिवर्तनों की ओर संकेत करते हैं।
एच.वी. मैरीडिथ के अनुसार, “वृद्धि और विकास का पहला प्रमाण मानव के आकार में परिवर्तनों का आना है। दूसरा प्रमाण संख्या है। दो कोशिकाओं के मिलने से कई कोशिकाओं वाला मानव जन्म लेता है। तीसरा प्रमाण हैकृ मानव की हड्डियों में परिवर्तन होना। चौथा प्रमाण हैकृ हृदय, आंतड़ियों और अन्य अंगों के कोणों और स्थिति में परिवर्तन का होना। पाँचवां प्रमाण है- सापेक्षिक आकार में परिवर्तन, अर्थात् सिर टाँगों की अपेक्षा छोटा हो जाता है।” संक्षेप में वृद्धि और विकास के पाँच प्रमाण हुए- आकार, संख्या, प्रकार, स्थिति तथा सापेक्षिक आकार।
जैसा कि हमें मालूम है कि मानव की वृद्धि निषेचित अंड में विभाजन के परिणामस्वरूप होती है। विभाजित निषेचित अंड ही भूर्ण बनता है तथा उसकी कोशिकाओं में वृद्धि से ही मानव शरीर में वृद्धि होती है। वृद्धि तथा शारीरिक वृद्धि निरन्तर नहीं होती। इसकी गति एक जैसी नहीं होती। वृद्धि की गति में परिवर्तन आते रहते हैं। किसी विशेष समय तक वृद्धि होती रहती है तथा उसके पश्चात् यह रुक जाती है। वृद्धि एक विशेष पद्धति पर तथा आन्तरिक रूप से होती रहती है। शिशुकाल में वृद्धि की गति बहुत तीव्र होती है, लेकिन बाद में यह धीमी हो जाती है। वृद्धि वंशानुक्रम और वातावरण की अन्तःक्रिया से होती है।

Published

10 May 2022

Series

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Details about the available publication format: Paperback

Paperback

ISBN-13 (15)

978-93-94411-16-6

How to Cite

Chander, R. . (Ed.). (2022). वृद्धि और विकास की अवधारणा. In (Ed.), बाल्यावस्था और विकास (pp. 39-55). Shodh Sagar International Publications. https://books.shodhsagar.org/index.php/books/catalog/book/30/chapter/165