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क्रियात्मक अनुसंधान की संकल्पना का विकास
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Synopsis
क्रियात्मक अनुसंधान की संकल्पना का जन्म स्टीफेन एम, कोरे (1953) के विचारों में हुआ। कई लेखकों ने इस संकल्पना को लेबिन से जोड़ने का प्रयास किया है। एक लेखक ने, 1926 में इसका विकास हुआ, ऐसा भी लिखा है। साथ ही यह भी कहा है कि इस प्रत्यय की उत्पत्ति का स्रोत आधुनिक मानव-व्यवस्था सिद्धांत है। ये विचार भ्रामक हैं। क्रियात्मक अनुसंधान की संकल्पना केवल कोरे की है तथा उसकी उत्पत्ति केवल 1953 में लिखी गई उनकी पुस्तक “एक्शन सिसर्च टू इम्प्रूव स्कूल प्रैक्टिस” (1953) से ही मानी जाती है। इससे पहले कभी किसी ने इस शब्दावली का प्रयोग नहीं किया। यह दूसरी बात है कि किन्हीं दूसरे लेखकों के विचारों में कोरे के विचारों को समानता एवं साहयता रही हो। मौलि के अनुसार भी इस संकल्पना के विकास के लिए कोरे को ही उत्तरदायी माना गया है। मौलि का कहना है कि जब उपरोक्त पुस्तक (1953) प्रकाशित हुई तो अध्यापकों ने उसका बहुत स्वागत किया क्योंकि वे जिन समस्याओं से जूझ रहे थे, उनके समाधान के उपाय उन्हें नहीं सूझ रहे थे और इस पुस्तक में इन समाधानों को खोजने की दिशाएँ सुझाई गई थीं। यह सुझाव ही क्रियात्मक अनुसंधान था।
क्रियात्मक अनुसंधान को संकल्पना कोरे के मस्तिष्क में घर कर गई। इसके पीछे उनके अनुभवों की पृष्ठभूमि थी। जो अनुसंधान 1950 तक अमरीका में शिक्षा के क्षेत्र में हो रहे थे, उनसे कोरें अत्यन्त श्रुब्ध थे क्योंकि उनकी उपयोगिता बहुत सीमित थी। विद्यालयी शिक्षा पर उसका वांछनीय प्रभाव नहीं पड़ रहा था। विद्यालयों के समक्ष अनेक समस्याएँ थीं, परन्तु शैक्षिक अनुसंधान उन दिनों-प्रतिदिन की समस्याओं, जिनसे अध्यापक जूझ रहे थे, के समाधान उपलब्ध नहीं करा पा रहे थे। अधिकतर अनुसंधानों का उद्देश्य वृहद् न्यादर्श को लेकर सूचनाएँ एकत्र करके उनके आधार पर व्यापक सिद्धांतों एवं नियमों का प्रतिपादन करना होता था। अनुसंधान के ये परिणाम केवल सिद्धांतों तक ही सीमित रहते थे। केवल ज्ञान-भंडार ही उनसे भरता था।
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