Chapter Title:
समस्या का विश्लेषण एवं उसका परिभाषीकरण
Book Title:
Synopsis
समस्या का अन्तिम रूप से चयन हो जाने के पश्चात उसका कथन किया जाता है अर्थातअन्तिम रूप में उसको लिखा जाता है तथा इस कथन के पश्चात समस्या की गहराई से विश्लेषण अर्थात परिभाषीकरण एवं वर्णन किया जाता है। कई कारणों से ऐसा किया जाना आवश्यक है। समस्या का विश्लेषण एवं परिभाषीकरण शोध की दिशाओं को स्पष्ट करता है तथा इस बात की ओर संकेत करता है कि उस अनुसंधान में किस प्रकार के चर सन्निहित हैं, उनका मापन किस प्रकार किया जाएगा तथा अनुसंधान की प्रक्रिया क्या होगी। इस प्रकार अनुसंधान-कार्य का सम्पूर्ण मानचित्र स्पष्ट एवं निश्चित हो जाता है। भिटनी के अनुसार, समस्या के परिभाषीकरण से तात्पर्य होता है, “समस्या को एक परिधि के भीतर सीमित करना, उसे उन मिलते-जुलते एवं अलग करना जो संबंधित परिस्थितियों में पाए जाते हैं।” ऐसा करने से शोधकर्ता को स्पष्ट रूप से ज्ञात हो जाता है कि समस्या वास्तव में क्या है। आरंभ में ही समस्या का इस प्रकार का विशिष्टीकरण एवं व्यावहारिक सीमांकन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होता है। इस संबंध में मनरो एवं ऐंगिलहार्ट का कथन विशेष महत्व का है। उनका कहना है कि समस्या के परिभाषीकरण का अर्थ है “उसका विस्तृत एवं सही-सही विशिष्टीकरण करना, प्रत्येक मुख्य एवं गौण प्रश्न जिसका उत्तर वांछतीय है, का स्पष्टीकरण करना तथा अनुसंधान की सीमाओं का निर्धारिण करना। इसके लिए उनके अनुसार, यह आवश्यक है कि जो अनुसंधान पहले हो चुके हैं. उनकी समीक्षा की जाए ताकि यह निश्चित किया जा सके कि क्या करना है। कभी-कभी एक ऐसे शैक्षिक दृष्टिकोण अथवा शिक्षा-सिद्धांत का विकास एवं निर्माण करना भी आवश्यक हो सकता है जो प्रस्तावित अनुसंधान को एक आधार प्रदान कर सके। इसके अन्तर्गत आधारभूत अवधारणाओं को भी स्पष्ट करना आवश्यक होता है। साधारण भाषा में समस्या के परिभाषीकरण से तात्पर्य उसके विशिष्टीकरण एवं स्पष्टीकरण से ही होता है। उसका आधार समस्या का विश्लेषण एवं स्पष्ट वर्णन होता है।
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